2/10/13

कश्मीर : एक यात्रा-वृत्तांत (अफ़ज़ल गुरु के बहाने) : अमिताव कुमार



दिनांक 9 फरवरी सुबह 8 बजे सरकार ने अफज़ल गुरु को गुपचुप फांसी दे दी। इस घटनाक्रम ने न्याय और क़ानून की प्रक्रिया, सरकार की भूमिका, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, कांग्रेस और भाजपा के सियासी जोड़-तोड़ के सम्बन्ध में अनेक महत्वपूर्ण सवालों को फिर से खोल कर रख दिया है। 9 फरवरी को ही जंतर मंतर पर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे लोगों की, जो इस पूरे मामले में वैकल्पिक राय रखते हैं, जिस तरह दक्षिणपंथी गुंडावाहिनी ने पिटाई की और अपमानित किया और कांग्रेसी सरकार की पुलिस ने उनके खिलाफ कुछ नहीं किया, उसकी कठोर शब्दों में निंदा करते हुए, हम अफजल गुरु की फांसी की घटना के आलोक में लगभग  चार  वर्ष पहले श्री अमिताव कुमार के 'समकालीन जनमत' में प्रकाशित अनूदित लेख को यहाँ फिर से दे रहे हैं. इस यात्रा-वृत्तांत में कश्मीर और अफज़ल गुरु के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियाँ बेहद संवेदना के साथ अंकित की गई है। इस घटना पर हम अपनी विस्तृत टिप्पणी आगे ज़रूर ही प्रकाशित करेंगे। फिलहाल पढ़िए ये लेख- सुधीर सुमन 

दिल्ली से जम्मू, फिर आगे श्रीनगर तक हवाई-यात्रा करने के बाद, मैं टैक्सी से उत्तर की ओर पाकिस्तान बार्डर के पास स्थित सोपोर के लिए चला. मैं कश्मीर आया था तबस्सुम गुरु से मिलने जिसका पति दिल्ली में मौत का मुंतज़िर है. लेकिन जब मैं उसके सामने उपस्थित हुआ तो उसने हाथ हिलाकर मुझसे मिलने से मना कर दिया. पत्रकारों से मिलने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी.

भारतीय संसद पर 2001 में हुए हमले में उसकी भूमिका के लिए मोहम्मद अफ़ज़ल गुरु को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई थी. इस मामले में एक अन्य व्यक्ति को 10 साल की सज़ा सुनाई गई थी, जबकि दो अन्य बरी कर दिए गए थे. अफ़ज़ल गुरु को फ़ांसी 20 अक्टूबर,2006 को लगनी थी, लेकिन राष्ट्रपति के नाम रहम की अपील दायर किए जाने के चलते उसे रोक दिया गया था. सर्वोच्च न्यायालय ने अफ़ज़ल की अपील पर सुनवाई के बाद फैसले में यह माना कि अफ़ज़ल के खिलाफ़ सबूत महज परिस्थितिजन्य थे और यह भी कि पुलिस ने कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया था. बावजूद इसके, फैसले में कहा गया कि भारतीय संसद पर हमले ने, "पूरे देश को हिला कर रख दिया और समाज की सामूहिक अंतरात्मा तभी संतुष्ट होगी जब अपराधी को मॊत की सज़ा दी जाए."

जवाब में कश्मीरी न्रेताओं के एक समूह ने एक प्रस्ताव पास किया जिसके एक अंश में कहा गया कि, "हम कश्मीर के लोग यह पूछना चाहते हैं कि भारतीयों की सामूहिक अंतरात्मा इस बात से क्यों विचलित नहीं होती कि एक कश्मीरी को निष्पक्ष सुनवाई और खुद के प्रतिनिधित्व का मौका दिए बगैर मौत की सज़ा सुनाई गई है?"
अफ़ज़ल के परिवार की हैसियत वकील कर पाने की नहीं थी और अदालत द्वारा नियुक्त किया गया वकील कभी पेशी के दौरान हाज़िर ही नहीं हुआ. एक दूसरी वकील नियुक्त की गई लेकिन वह अपने मुवक्किल से निर्देश लेने को तैयार ही नहीं थी. उसने साक्ष्यरहित दस्तावेज़ों को अदालत में दाखिल किए जाने को सहमति दे दी. अफ़ज़ल ने इसके बाद अदालत को चार वरिष्ठ वकीलों के नाम दिए, लेकिन उन सबने अफ़ज़ल का प्रतिनिधित्व करने से इनकार कर दिया. अदालत ने एक और वकील चुना, उसने भी कहा कि वह अफ़ज़ल की तरफ़ से अदालत में पेश नहीं होना चाहता और अफ़ज़ल ने भी कहा कि उसका उस वकील पर भरोसा नहीं था. लेकिन अदालत अड़ गई- इसी वजह से कश्मीरी नेताओं ने पूछा कि क्या यह अफ़ज़ल की गलती थी कि भारतीय वकीलों ने उसकी निष्पक्ष सुनवाई को सुनिश्चित करने की बजाय एक कश्मीरी को मरने देना "ज़्यादा देशभक्तिपूर्ण" समझा. 

कोई नासमझ व्यक्ति ही यह मानेगा कि कश्मीर में चल रहा संघर्ष कट्टरपंथी लड़ाकों और बहादुर सैनिकों के बीच है. वास्तविक तस्वीर ज़्यादा स्याह और पेचीदा है. एक व्यवस्था जिसमें पारम्परिक आर्थिक क्रिया-कलाप ठप्प पड़ गए हों और संसाधनों का प्रवाह एक स्तर पर सुरक्षा-तंत्र पर आधारित राज्य-व्यवस्था पर निर्भर हो, उसमें शोषकों की तरह देखे जाने वाले लोगों पर निर्भरता की भीषण दारूण भावना से बचना नामुमकिन सा है. इस परिस्थिति ने एक पेचीदे मानसिक विभाजन को जन्म दिया है. अरुंधती राय ने लिखा है, " कश्मीर एक घाटी है जो विद्रोहियों, भगोड़ों, सुरक्षाबलों, मुखबिरों, धन-उगाही करनेवालों, जासूसों, दोहरे एजेंटों, भारत और पाकिस्तान- दोनों की गुप्तचर एजेंसियों, ब्लैकमेल करने वालों और होनेवालों, मानवाधिकारवादियों, एन.जी.ओ.वालों तथा अपार अवैध हथियारों और पैसों से लबालब है....यह कहना आसान नहीं है कि वहां कौन किसके लिए काम कर रहा है."

तबस्सुम गुरु ने सन 2004 में कश्मीर टाइम्स में "न्याय के लिए एक पत्नी की गुहार' नाम से एक वक्तव्य जारी कर मानो रात में बिजली की एक कौंध से इस धूसर परिदृश्य को आलोकित कर दिया. यह वक्तव्य जितनी यंत्रणा में लिखा गया है, उतना ही निर्भीक भी है. महज 1500 शब्दों वाला यह वक्तव्य सैन्य कब्ज़े की कीमत को पूरी तरह उघाड़ते हुए दिखला देता है कि पुलिस और सुरक्षाबलों ने किस तरह कश्मीरियों को उनके ही दमन में सहयोगी बनने को विवश कर दिया. तबस्सुम अपने पति की कहानी से ही शुरू करती है.

१९९० में, दूसरे हज़ारों कश्मीरी युवाओं की ही तरह अफ़ज़ल गुरु भी कश्मीर की मुक्ति के आंदोलन में शामिल हुआ. वह डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा था, लेकिन उसे छोड़ ट्रेनिंग लेने पाकिस्तान चला गया. लेकिन तीन महीने बाद ही उसका मोहभंग हो गया और वह वापस लौट आया. सीमा सुरक्षाबल ने उसे समर्पण कर चुके विद्रोही का प्रमाण-पत्र दिया. डाक्टर बनने का उसका सपना टूट चुका था और उसने मेडिकल आपूर्तियों तथा शल्यचिकित्सा में काम आने वाले उपकरणों का कारोबार शुरु किया. अगले ही साल 1997 में उसका विवाह हुआ. अफ़ज़ल तब 28 का और तबस्सुम 18 की थी.

समर्पण के बाद अक्सर ही अफ़ज़ल को उत्पीड़ित किया जाता और उस पर उन कश्मीरियों की जासूसी करने का दबाव बनाया जाता जिन पर विद्रोही होने का संदेह था. (सार्त्र ने पचास साल से भी पहले लिखा था, " यातना का उद्देश्य महज किसी आदमी की ज़बान खुलवाना ही नहीं होता, बल्कि उसे दूसरों के साथ विश्वासघात करने के लिए राज़ी कराना होता है. यातना का उद्देश्य यह होता है कि उसका शिकार इंसान अपनी चीखों के बीच दूसरों और खुद अपनी निगाह में एक आज्ञाकारी निम्नतर पशु में ढल जाए.") एक रात, स्पेशल टास्क फ़ोर्स के सदस्यों नें अफ़ज़ल को उठा लिया और उसे एस.टी.एफ़. कैम्प में यातना दी गई. 

तबस्सुम की अपील में जिनका नाम लिया गया है, उन अधिकारियों में से एक द्रविंदर सिंह ने खुलकर कहा कि उसके कामकाज के तौर-तरीकों में यातना देना एक ज़रूरत की तरह है. एक रिकार्ड किए गए इंटरव्यू में द्रविंदर सिंह ने अफ़ज़ल गुरु के बारे में बताते हुए एक पत्रकार से कहा, "मैंने अपने कैम्प में उससे पूछ-ताछ की और उसे यातना दी. हमने लिखत-पढ़त में उसकी गिरफ़्तारी कहीं दर्ज़ नहीं की. हमारे कैम्प में उसे दी गई यातनाओं के बारे में उसका बयान सही है. ऐसा किया जाना उन दिनों प्रक्रिया का हिस्सा था. हमने उसकी गांड में पेट्रोल डाला और उसे बिजली के झटके दिए. लेकिन मैं उसे तोड़ नहीं सका. हमारी कड़ी से कड़ी पूछ-ताछ के बावजूद उसने हमारे सामने कुछ भी नहीं उगला." अफ़ज़ल को यातना देनेवालों ने उससे एक लाख रुपयों की मांग की जिसे तबस्सुम ने शादी में मिले थोड़े से गहने सहित सब कुछ बेचकर अदा किया. 

2004 में लिखे गए अपने वक्तव्य में तबस्सुम गुरु ने अपनी यातनाओं को दूसरे तमाम कश्मीरियों के अनुभवों की रौशनी में देखा और प्रस्तुत किया. उसने लिखा, "आपको लग रहा होगा कि अफ़ज़ल किसी विद्रोही गतिविधि में शामिल रहा होगा जिसके चलते सुरक्षाबल उससे जानकारी उगलवाले के लिए यातनाएं दे रहे थे. लेकिन आपको कश्मीर के हालात समझना चाहिए जहां हर औरत, मर्द और बच्चे के पास आंदोलन की कुछ न कुछ जानकारी होती है भले ही वह उसमें शामिल न भी हो. लोगों को मुखबिरों में तब्दील करके वे भाई को भाई के खिलाफ़, पत्नी को पति के खिलाफ़ और बच्चों को मां-बाप के खिलाफ़ खड़ा कर देते हैं." 

एस.टी.एफ़. कैम्प से निकलने के बाद (जहां उससे पूछ-ताछ करनेवालों ने उसके शिश्न में बिजली के तार छुआए थे) अफ़ज़ल को चिकित्सा की ज़रूरत थी. 6 महीने बाद वह दिल्ली चला आया. उसने तय किया था कि जल्दी ही वह तबस्सुम और अपने नन्हे बालक गालिब को भी दिल्ली में उसी घर में ले आएगा जो उसने किराए पर ले रखा था. लेकिन दिल्ली में रहते हुए उसे उसी एस.टी. एफ़ अधिकारी द्रविंदर सिंह का फ़ोन मिला जिसने पहले उसे यातना दी थी. सिंह ने अफ़ज़ल से कहा कि वह चाहता है कि अफ़ज़ल उसका एक छोटा सा काम कर दे. उसे मोहम्मद नाम के एक आदमी को कश्मीर से दिल्ली लाने का काम सौंपा गया जो उसने कर दिया. वह उस दुकान पर भी मोहम्मद के साथ गया जहां से उसने एक कार खरीदी. इस कार का बाद में संसद पर हमले में उपयोग हुआ और मोहम्मद की शिनाख्त हमलावरों में से एक के बतौर हुई.

अफ़ज़ल अभी श्रीनगर में सोपोर जाने वाली बस का इंतज़ार ही कर रहा था कि उसे गिरफ़्तार करके एस.टी. एफ़ के मुख्यालय लाया गया और बाद में वहां से उसे दिल्ली लाया गया. वहां उसने मारे गए आतंकवादी मोहम्मद को एक ऐसे आदमी के बतौर पहचाना जिसे वह जानता था. उसके बयान के इस हिस्से को तो अदालत ने माना, लेकिन उस हिस्से को नहीं जिसमें उसने कहा था कि वह एस.टी. एफ़ के निर्देशों पर काम कर रहा था.

जब मैं किराए की गाड़ी से सोपोर पहुंचा, मैंने सैनिकों को गलियों और छतों पर गश्त करते देखा. श्रीनगर में भी सैनिक थे, लेकिन यहां का मंज़र ही दूसरा था. रास्ते में हम सड़क के किनारे लगे उन तमाम साइनबोर्डों को छोड़ते आए थे जिन पर सेना और अर्द्ध-सैनिक सुरक्षाबलों ने "कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है" जैसे संदेश पुतवा रखे थे. इस कस्बे में महज छोटे-छोटे अधबने मकान और उदास दुकानें हैं. मैंने कार से बाहर निकलकर उस अस्पताल के बारे में मालूम करने की कोशिश की जिसमें तबस्सुम काम करती थी.

वह भर्ती वार्ड वाले ब्लाक में कैशियर की मेज़ पर थी, एक लम्बी महिला, जिसने हरे रंग की शलवार-कमीज़ पहन रखी थी और सर दुपट्टे से ढंक रखा था. उसने कहा कि वह मुझसे बात नहीं करना चाहती. मैं श्रीनगर के दोस्तों को फ़ोन करने बाहर निकला और उनसे मुझे पता चला कि एक-दो हफ़्ते पहले दिल्ली से आए दो पत्रकारों ने आकर स्टिंग आपरेशन किया था. अफ़ज़ल के भाई मुकदमे में उसकी पैरवी के लिए पैसे इकट्ठा कर रहे थे, लेकिन उन पैसों का इस्तेमाल संपत्ति खरीदने में कर रहे थे. पत्रकार गुप्त कैमरा लाए थे और उन्होंने तबस्सुम से पूछा कि क्या उसे नहीं लगता कि कश्मीरी नेतृत्व ने उससे दगा किया.

मैंने तय किया कि इंतज़ार करूंगा. आखिर मैं इतनी दूर तक आ चुका था. मरीज़ लगातार अस्पताल के दरवाज़े की तरफ़ आते ही चले जा रहे थे. एक खच्चर वाले टांगे से एक बीमार महिला उतारी गई. मेरा ड्राइवर यह जानकर कि मैं न्यूयार्क से आया हूं, यह जानना चाहता था कि वर्ल्ड रेसलिंग फ़ेडरेशन (डब्लू.डब्लू. एफ़.) के कुश्ती के मैच अमरीका में कहां आयोजित होते हैं. हम आपस में थोड़ी देर बात करते रहे, फ़िर वापस अस्पताल में दाखिल हुए. 'बाह्य रोगी ब्लाक' जहां लिखा था, वहां भारी भीड़ इंतज़ार कर रही थी. ज़्यादातर लोग कारिडोर में खड़े थे और एक दूसरे से रगड़ते हुए आगे पहुंचने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे. ऐसा करने के लिए जितनी ऊर्जा की ज़रूरत होती है, वह एक स्वस्थ इंसान में ही हो सकती है. कुछ ही कुर्सियां थीं जिन पर बैठे लोगों ने कुछ ऐसी भंगिमा अपना रखी थी मानो कई दिनों से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हों. दीवाल पर लिखा हुआ था, "इंतज़ार के समय का सदुपयोग करें-- काम जो करने हैं, उनकी योजना बनाएं-- ध्यान लगाएं-- प्रणायाम करें-- किसी दैवी नाम का स्मरण करें-- किताबें पढ़ें." मैंने कुछ देर इन इबारतों को पढ़ा फिर झल्लाकर मैंने तय किया कि तबस्सुम से कह देता हूं कि अब मैं जा रहा हूं. उसने सर हिलाया, फीकी सी मुस्कान चेहरे पर तैरी और फिर अलविदा कहा.

अस्पताल के बाहर की सड़क के किनारे अखरोट और भिसा के पेड़ों की कतारों थी. इस सड़क से मैं बर्फ़ से लदी पहाड़ियों को देख सकता था. शफ़ी के पास वे तमाम नुस्खे थे जिन्हें उसके अनुसार आज़मा कर मैं तबस्सुम को बातचीत के लिए तैयार कर सकता था. उसने कहा कि मुझे उससे यह कहना चाहिए था कि मैं जो लिखूंगा, उससे उसके पति को मदद मिलेगी. लेकिन मैंने दिल्ली मे भीड़ के द्वारा अफ़ज़ल का पुतला जलाए जाने की तस्वीरें देखी थीं, दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुनाए जाने की खुशी में अदालत के कमरे के बाहर की सड़कों पर पटाखे छोड़े थे, अखबार और टेलिविज़न, दोनों उसे आतंकवादी हमले का मास्टरमाइंड बता रहे थे. मैं तबस्सुम को कैसे आश्वस्त करता कि जो मैं लिखता उससे अफ़ज़ल की मदद हो सकती थी?

जब पत्रकारों ने तबस्सुम से अफ़ज़ल के भाइयों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि उसने कभी किसी से अपने पति के मुकदमे की बाबत पैसा नहीं मांगा. उसने कहा, "मेरा ज़मीर नहीं कहता." मैंने उस वक्तव्य के बारे में फिर सोचा जब मैंने दिल्ली में संजय काक की फ़िल्म 'जश्ने-आज़ादी' देखी. यह फ़िल्म कश्मीर में हिंसा की जो कीमत अदा की गई उसका दस्तावेज़ है. झोंपड़ी में रह रही एक दिन-हीन महिला से पूछा जाता है कि क्या गलत तरीके से मार दिये गए उसके परिवार के एक सदस्य की मौत का मुआवज़ा सेना ने उसे दिया, जिसका कि वादा किया गया था. उस औरत ने छाती पीटते हुए कहा, "वे मेरे बच्चे को मेरी गोद से छीन ले गए. मैं सूअर का मांस खा लूंगी, लेकिन सेना से मुआवज़ा स्वीकार नहीं करूंगी."

कश्मीर से न्यूयार्क (जहां मैं काम करता हूं) लौटकर, मैंने ओरहान पामुक का 'इस्तानबुल' शीर्षक संस्मरण पढ़ा. अपनी जवानी में पामुक एक पेंटर बनना चाहते थे, और वे अभी भी अपने शहर को एक कलाकार की निगाह से देखते थे. पामुक ने लिखा, "शहर को स्याह और सफ़ेद में देखना, उस पर जमे धूसरपन को देखना और उस उदास अकेलेपन में सांस लेना जिसे उसके निवासियों ने अपनी नियति की तरह गले लगा रखा है, के लिए महज इतना ही ज़रूरी है कि आप किसी अमीर पश्चिमी शहर से उड़कर सीधे उन भीड़-भड़क्केवाली गलियों में गुज़रें: अगर उस समय सरदी है, तो गलाता पुल पर हर आदमी वैसे ही पीले, मटमैले भूरे और बदरंग कपड़े पहने मिलेगा." 

इन शब्दों को पढ़कर, मुझे फ़िर श्रीनगर का ध्यान आया. मैं एक अमीर पश्चिमी शहर से हवाई उड़ान के ज़रिए आया था और वहां की हर चीज़ मुझे वैसी ही बदरंग दिखाई दी थी, गंदे मिलिट्री हरे रंग में लिपटी हुई. हर वो घर जो नया था, भड़कीला और अश्लील जान पड़ता था या फ़िर आश्चर्यजनक तरीके से अधूरा. बहुत सी इमारतों के शटर गिरे हुए थे, या फ़िर वे जलकर काली हो चुकी थीं, या फ़िर उनमें से कई महज रख-रखाव के अभाव में ढह रहीं थीं. पामुक लिखते हैं कि जो लोग इस्तानबुल में रहते हैं, वे रंग पसंद नहीं करते क्योंकि वे उस शहर का शोक मना रहे होते हैं जिसके उज्जवल अतीत पर डेढ़ सौ साल के पतन की गर्द ने उसे धूसर बना दिया है. मुझे लगता है कि पामुक खालिस गरीबी का भी चित्रण कर रहे हैं. 

'जश्न-ए-आज़ादी' ने मुझे एक दूसरा श्रीनगर दिखाया. फ़िल्म का उत्कर्ष इस बात में निहित है कि उसने हिंसा के बावजूद दर्शकों के दिमाग में विचारों और रंगों के लिए जगह पैदा की. फ़िल्मकार ने धूसरपन और उदासी के बीच बारंबार स्मृति की कौंध को ढूंढ निकाला : ज़मीन पर पड़े खून के धब्बों की स्मृति, पहाड़ियों के हुस्न और लाल अफ़ीम के पौधों की स्मृति, माओं की सिसकियों और ग्रामीण कलाकारों के रंगे-पुते चेहरों की स्मृति. स्मृतियां-- मृतकों की, बर्फ़बारी की, हर जगह खुद रही नई कब्रों की और आज़ादी के लिए नारे लगाते चमकदार चेहरों की भी. 

चार दशक से भी ज़्यादा समय पहले लिखे यात्रा-संस्मरण में वी.एस. नायपाल ने लिखा था,"गंदगी से बजबज गलियों से दिखनेवाली उन तंग जगहों में कालीनों, शालों और कम्बलों पर शानदार आकृतियों में चमकदार रंगों की बहार होती थी. फ़ारस से अर्जित ये आकृतियां और रंग कश्मीर में जैसे स्वत: उग आए हों अपनी सारे खरेपन और विविधता के साथ...." काक की फ़िल्म में चटकदार रंग तब ही दीख पड़ते हैं, जब हम कश्मीरी पहनावे में फ़ोटो खिंचाते,प्लास्टिक के फूलों के गुलदान हाथ में लिए पर्यटकों को देखते हैं. 

जब मैं अफ़ज़ल और तबस्सुम गुरु की उदासी के बारे में सोचता हूं, तो मैं रंग नहीं, बल्कि आख्यान खोजता हूं जो उनके जीवन को अर्थ दे सके. यही वह चीज़ है जो तबस्सुम की कही कहानी में ताकतवर है. उसने अपने अनुभवों को तारतम्य दे दिया, इस तरह कि दूसरे कश्मीरी दम्पत्तियों के अनुभव भी उनमें मुखरित हो उठे. 

पामुक के 'इस्तानबुल' की ही तरह मैंने कश्मीर की झलक ऐसी ही एक दूरदराज़ जगह के बारे में बनी एक और फ़िल्म में भी पाई. हानी अबू-असद की फ़िल्म 'पैराडाइज़ नाउ' वेस्ट बैंक के दो दोस्तों- सईद और खालिद की कहानी है जिन्हें तेल अवीव पर आतंकवादी हमले के लिए भर्ती किया गया है. ये दोनों वेस्ट बैंक में आ बसे आप्रवासी के वेश में एक शादी में जा रहे हैं. ये दोनों जिन्हें आगे बमबारी करनी है, बार्डर पर आकर बिछड़ जाते हैं, और योजना रोक दी जाती है. इस घटनाक्रम ने खालिद के मन में कुछ सोच-विचार और शंकाओं को प्रेरित किया. लेकिन सईद कटिबद्ध है. उसे कौन सी चीज़ प्रेरित कर रही थी, इसका पता हमें तब चलता है जब हाल ही में फ़िलिस्तीन लौटी सुहा नाम की युवती के साथ वह एक घड़ी की दुकान में प्रवेश करता है और सुहा लक्ष्य करती है कि उस दुकान पर वीडियो भी उपलब्ध थे. इन वीडियो कैसेटों में शत्रुओं के साथ सहयोग करने वालों को मौत के घाट उतारते दिखाया गया था. सुहा को झटका लगता है. वह पूछती है, "क्या तुम्हें लगता है कि इन वीडियो कैसेटों की यहां इस तरह से बिक्री एक सामान्य बात है?" सईद जवाब में कहता है, " यहां क्या चीज़ सामान्य है?". फिर वह खामोश ढंग से सुहा को बताता है कि उसका पिता भी शत्रुओं का सहयोगी था और उसे भी मौत के घाट उतार दिया गया.

नाबलुस में कारों के परखच्चे लगातार ही उड़ते रहते हैं. कुछ भी काम नहीं करता. घर या तो बम धमाकों से तबाह कर दिये गए या फिर अधूरे दिखते हैं. नाबलुस में भी बच्चे उसी तरह हिंसा से डरे दिखाई देते हैं जैसे कि श्रीनगर में. मैं अफ़ज़ल और तबस्सुम के बच्चे गालिब और हज़ारों दूसरे कश्मीरियों के बारे में सोचता हूं. यह कल्पना करना भयावह भले हो लेकिन मुश्किल नहीं कि उन्हें भी एक दिन वे शब्द मिल ही जाएंगे जिनमें वे सईद की तरह ही अपना साक्ष्य दर्ज़ कराएंगे. वे शब्द सईद शब्दों की तरह होंगे जिन्हे वह आत्मघाती हमले पर जाने से पहले एक खाली कमरे में कैमरे के सामने बोलता है :

"कब्ज़े के अपराध अंतहीन होते हैं. इनमें भी सबसे भयंकर अपराध होता है लोगों की कमज़ोरियों का शोषण कर उन्हें अपने ही शत्रु का सहयोग करने पर मजबूर करना. ऎसा करके वे न केवल प्रतिरोध को खत्म करते हैं, बल्कि उनके परिवारों को तबाह करते हैं, उनके आत्मसम्मान को नष्ट करते हैं, एक पूरी जनता को तबाह करते हैं. जब मेरे पिता को मौत के घाट उतारा गया, तब मैं दस साल का था. वे अच्छे आदमी थे. लेकिन वे कमज़ोर हो चले थे. इसके लिए मैं कब्ज़े को दोषी मानता हूं. उन्हें समझना चाहिए कि अगर वे मुखबिरों को तैयार करते हैं , तो उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी. आत्मसम्मान के बगैर ज़िंदगी बेकार है. खासकर तब जब वह हर दिन आपको अपमान और कमज़ोरी की याद दिलाती हो और दुनिया महज उपेक्षा और कायरता के साथ देखती चली जाती हो."